/भारतीय रुपया इन दिनों गंभीर दबाव में है और डॉलर के मुकाबले अपने अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुका है। दिसंबर 2025 में पहली बार रुपया 91 के पार चला गया जिसने सरकार रिजर्व बैंक निवेशकों और आम लोगों की चिंता बढ़ा दी है। विशेषज्ञों के मुताबिक यह गिरावट किसी एक वजह से नहीं बल्कि घरेलू और वैश्विक कारकों के संयुक्त असर से हुई है। सबसे बड़ा कारण विदेशी निवेशकों की लगातार बिकवाली माना जा रहा है। विदेशी संस्थागत निवेशक FII भारतीय शेयर और बॉन्ड बाजार से तेजी से पैसा निकाल रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक इस साल अब तक विदेशी निवेशक भारतीय बाजार से करीब 18 अरब डॉलर से अधिक निकाल चुके हैं। इससे बाजार में डॉलर की मांग बढ़ी है और रुपये की मांग कमजोर पड़ी है जिसका सीधा असर मुद्रा विनिमय दर पर दिख रहा है।
दूसरा अहम कारण डॉलर की वैश्विक मजबूती है। अमेरिका में ऊंची ब्याज दरों और मजबूत आर्थिक संकेतों के चलते डॉलर दुनियाभर की मुद्राओं के मुकाबले मजबूत बना हुआ है। जब अमेरिकी बॉन्ड पर रिटर्न बढ़ता है तो वैश्विक निवेशक उभरते बाजारों से पूंजी निकालकर अमेरिका की ओर रुख करते हैं। इसका असर भारत जैसे देशों की मुद्रा पर पड़ता है।भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौते को लेकर बनी अनिश्चितता ने भी रुपये पर दबाव बढ़ाया है। अमेरिका द्वारा भारतीय निर्यात पर कुछ उत्पादों में ऊंची टैरिफ दरें लगाए जाने से भारतीय सामानों की अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा घटी है। इससे निर्यात से होने वाली डॉलर की आमद सीमित हुई है और चालू खाते के घाटे की चिंता बढ़ी है।
रुपये की गिरावट का असर आम आदमी की जिंदगी पर भी पड़ता है। कमजोर रुपये के कारण कच्चा तेल गैस इलेक्ट्रॉनिक्स और अन्य आयातित वस्तुएं महंगी हो जाती हैं। इससे पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने और महंगाई में दोबारा तेजी आने का खतरा रहता है जिसका बोझ सीधे उपभोक्ताओं पर पड़ता है।तेल आयात भी रुपये की कमजोरी की एक बड़ी वजह है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की ऊंची कीमतों से भारत का आयात बिल बढ़ गया है। इससे व्यापार घाटा और चालू खाता घाटा बढ़ने की आशंका है जो मुद्रा पर अतिरिक्त दबाव डालता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि रुपये की गिरावट को थामने में भारतीय रिजर्व बैंक RBIकी भूमिका बेहद अहम है। आरबीआई जरूरत पड़ने पर बाजार में डॉलर बेचकर और तरलता का प्रबंधन कर रुपये की तेज गिरावट को रोक सकता है। हालांकि केंद्रीय बैंक आमतौर पर बहुत ज्यादा हस्तक्षेप से बचता है ताकि बाजार में अस्थिरता न बढ़े।लंबी अवधि में रुपये को स्थिर रखने के लिए सिर्फ मौद्रिक हस्तक्षेप काफी नहीं होगा। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि भारत को विदेशी प्रत्यक्ष निवेश FDIऔर दीर्घकालिक पूंजी प्रवाह को बढ़ावा देना होगा। मैन्युफैक्चरिंग इंफ्रास्ट्रक्चर और ग्रीन एनर्जी जैसे क्षेत्रों में निवेश बढ़ने से डॉलर की स्थायी आमद होगी।
निर्यात बढ़ाना भी रुपये को सहारा देने का एक अहम तरीका है। आईटी फार्मा इंजीनियरिंग और सेवा क्षेत्र के निर्यात में मजबूती आने से विदेशी मुद्रा भंडार मजबूत हो सकता है। इसके साथ ही अमेरिका और अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के साथ संतुलित और स्पष्ट व्यापार समझौते विदेशी मुद्रा प्रवाह को बढ़ा सकते हैं।महंगाई पर नियंत्रण भी रुपये की स्थिरता के लिए जरूरी है। अगर महंगाई काबू में रहती है तो आरबीआई को नीतिगत समर्थन बनाए रखने में आसानी होती है और ब्याज दरों पर दबाव कम रहता है। मध्यम से लंबी अवधि में नीतिगत सुधार निवेश अनुकूल माहौल और निर्यात को बढ़ावा देने वाली रणनीतियां रुपये की गिरावट पर ब्रेक लगा सकती हैं।
